सोचता था, कुछ करुंगा
अपने लिये
कुछ समाज के लिये
कुछ देश के लिये
क्या मालूम था ये
अरमान टूट जायेंगे
शीशे की तरह
ये जो पत्थर आया
जिसने अरमानो
के शीशे को चूर किया
कोसा पत्थर को
लेकिन ये तो पत्थर है
इसका क्या दोष
जिसने पत्थर फेंका
ना जाने उसके पास मेरे लिये
क्या अरमान थे
दोष तो मेरा है
जिसने पत्थर को
पास आने दिया
सोचा इस शीशे को
जोड दूँ जाकर
नया आकार दूँ इसे
परन्तु ये तो
बिल्कुल टूट चुका है
सोच रहा हूँ
इन टुकडो को कहीं
दूर डाल दूँ जाकर
नही तो ये मुझे, समाज और
देश को कष्ट पहुँचायेंगे
जिनके लिये मेरे
बहुत से अरमान थे
- अस्तित्व, यू ए ई
( ये पंक्तिया मैनें साल 1982 में लिखी थी। पहली बार इसे आज आप लोगों तक पहुँचा रहा हूँ। सोच रहा हूँ कि वो सारी रचनाये जिन्हें आयाम ना दे सका, धीरे-धीरे आप लोगो तक पहुँचाऊँ )
शुक्रवार, 30 नवंबर 2007
सोचता था !!!!!!
प्रस्तुतकर्ता अस्तित्व पर शुक्रवार, नवंबर 30, 2007 1 टिप्पणियाँ
गुरुवार, 29 नवंबर 2007
~ आज का नेता ~
हर नेता बनना चाहता है अभिनेता
अभिनय करता जाता है आज का नेता
नेता बन कर बढाना चाहते है अपना खाता
भ्रष्टाचार से करते है नेता अपना समझौता
नेता का वादा जनता की समझ नहीं आता
फ़िर भी जनता ही चुनती है ऐसा नेता
अपने स्वार्थ के लिये दल है बद्ला जाता
अपने प्रतिद्वंद्वी से हाथ मिला लेता है नेता
ईमान की बाते करके बेईमान बन जाता है नेता
स्वाभिमान की बात भूल चुका है आज का नेता
जाति धर्म का सहारा लेता आज का सफ़ेदपोश नेता
जनता की सुध नहीं लेता है आज का मदहोश नेता
- अस्तित्व, यू ए ई
प्रस्तुतकर्ता अस्तित्व पर गुरुवार, नवंबर 29, 2007 0 टिप्पणियाँ
मंगलवार, 27 नवंबर 2007
~ फिर भी ना जाने क्यों ~ ( प्रेम का एक रुप यह भी)
प्रेम अर्थ है,
प्रेम समर्थ है,
फिर भी ना जाने क्यो व्यर्थ है॥
प्रेम आरजू है,
प्रेम तपस्या है,
फिर भी ना जाने क्यों निराशा है॥
प्रेम चेष्टा है,
प्रेम निष्ठा है,
फिर भी ना जाने क्यों रुठा है॥
प्रेम शक्ति है,
प्रेम अनुभूति है,
फिर भी ना जाने रुकी अभिव्यक्ति है॥
प्रेम पावन है,
प्रेम नादान है,
फिर भी ना जाने क्यो परेशान है॥
प्रेम शान है,
प्रेम ईमान है,
फिर भी ना जाने बना क्यों हैवान है॥
प्रेम गीत है,
प्रेम जीत है,
फिर भी ना जाने मिलती क्यों हार है॥
- अस्तित्व, आबू दाबी, यू ए ई
प्रस्तुतकर्ता अस्तित्व पर मंगलवार, नवंबर 27, 2007 2 टिप्पणियाँ
रविवार, 25 नवंबर 2007
अपने पहलू में आने दो !!!
तुम्हारे पहलू में आने को अब जी चाहता है,
तुम्हारे आंचल में छुप जाने को जी चाहता है,
तुम्हारे अंगो में मेरे अंग मिल जाना चाहते है,
तन और मन एक दूजे में खो जाना चाहते है,
तुम्हारे बदन की महकती खुश्बू पा लेने दो,
अपने पहलू में मुझे बस यूं ही खो जाने दो,
सांसो को मेरी सांसो में अब मिल जाने भी दो,
अपने होंठो का रसपान मुझे अब करने भी दो,
प्यार से अपनी आंखो में मुझे अब बसने भी दो,
सारे जंहा का नशा मुझे अब इनमें पाने भी दो,
तुम्हारे पहलू में आने को अब जी चाहता है,
तुम्हारे आंचल में छुप जाने को जी चाहता है।
- अस्तित्व, आबू दाबी, यू ए ई
प्रस्तुतकर्ता अस्तित्व पर रविवार, नवंबर 25, 2007 2 टिप्पणियाँ